अच्छी नींद
आंख रितेश जी की हवेली में खुली। ये हवेली ही उनका किराए का घर है। वैसे तो उनका खुद का भी घर बाल बच्चे सब हैं पर किसी दूसरी दुनिया में।
आज शिलोंग से दरांग गांव की ओर रवाना होना है। देर रात तक गप्पे लड़ाने के बाद रितेश भाई किसी की मदद के लिए आधी रात को रवाना हो गए थे।
आंख खुली तो वो घर पर ही थे। बस मैं भी निकलने की तैयारी में जुट गया। बैग वैसे के वैसे ही रखे हुए हैं। नित्य क्रिया के बाद गरमा गरम चाय पर चर्चा होने लगी।
चर्चा में दरांग गांव जाने की बात उठी जहाँ पर उमगोट नदी को जमीनी स्तर पर भी देखा जा सकता है। मतलब की आर पार। इतने में आशुतोष जी भी आ गए और अपने किस्से कहानी बयां करने लगे।
उन्होंने बताया कि कैसे खासी आदिवासी यहाँ के इलाकों से पिछड़ते गए। और आज भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। रितेश जी के घर पर खाना बनाने वाली दाई भी आ गईं।
जिन्होंने सबके लिए भरपूर खाने का प्रबंध किया। रितेश जी को यहाँ सब जानते हैं। उनके घर की चाभी भी सबके पास बटी हुई है।
एक दुकानदार के पास, एक दाई और एक आशुतोष जी के पास। इसलिए शायद इस घर को हवेली का दर्जा दिया गया है। खाना सिर्फ हमारे लिए आया। रितेश जी अभी खाने के मूड में नहीं लग रहे हैं।
खाने पर रितेश जी को दरांग जाने वाली बात पता चली तो उन्होंने मुझे दुपहिया वाहन से जाने की हिदायत दी। बातचीत चल ही रही थी कि उन्होंने पलक झपकते ही फोन घूमा दिया गोविंद को।
वही गोविंद जो कल रात में हमें होटल दिलाने को कवायद में जगह जगह मेरे साथ भटका। फोन पर सही दुपहिया वाहन वाली दुकान पूछी और मुझे वहीं जाने का रास्ता बताया।
बैठे बिठाए ही दरांग जाने का इंतजाम हो रहा है। दुपहिया वाहन, भरपूर खाना और पूर्वोत्तर भारत के मजेदार ऐतिहासिक और कलात्मक किस्से।
भरपेट स्वादिष्ट खाना खाने के बाद आत्मा तृप्त नजर आई। अलविदा लेने का समय आ गया है। बैग से बाहर कुछ निकला ही नहीं कल से तो वैसे का वैसे ही रखा हुआ है।
निकला है तो ब्रश, मंजन और साबुन। ये सब अन्दर दबोच कर निकलने की तैयारी करने लगा। रितेश जी भी थके हुए दिखाई पड़ रहे हैं।
सुबह सवेरे आने के बाद भी सिर्फ चंद घंटों की ही नींद ले पाए हैं। बैग अन्दर कमरे से बाहर निकाल कर खाने की मेज़ के पास रख लिया।

घर के बाहर ऐश्वर्य और आदर्श के साथ सारथी ग्रुप के मुखिया रितेश गुरुंग
रितेश जी मुझे बाहर तक छोड़ने आए और पुलिस बाज़ार तक जाने का मार्ग बताने लगे। गोविंद का फोन नंबर लेने के बाद अब सारा दारोमदार गोविंद के ऊपर ही है।
अलविदा लेने में बाद गलियों से होते हुए निकल पड़ा पुलिस बाज़ार। पतली सी गली से निकलने के बाद यहाँ किराए पर चलने वाली टैक्सी का इंतजार करने लगा।
पुलिस बाज़ार
टैक्सी में सवार हो कर पुलिस बाज़ार के लिए रवाना हो चला। टैक्सी में और भी सवारियां है पर लबालब नहीं भरी है। बमुश्किल कुछ ही वक्त में आ पहुंचा। यहाँ गोविंद ने हमें पुलिस बाज़ार पर मिलने को कहा।
सुबह सवेरे बाज़ार में ऐसी हलचल है जिसका कोई जवाब नहीं। उत्तर भारत में तो इतनी भीड़ दिन में होती है जितनी यहाँ सुबह है।
सभी दुकानों में अच्छे खासे ग्राहक है। खासतौर पर सैलानी ही ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं। जो घर वापसी से पहले अक्सर अपने चाहने वालों के लिए कुछ ना कुछ ले जाते हैं।
आमतौर पर यह परंपरा भारत में काफी पुरानी है। पर जहाँ तक मुझे लगता है कि अधिकतर सामान तो आपको ऐसा अपने शहर में भी मिल जाएगा सिवाय जो खास है उसके।
पुलिस बाज़ार पर गोविंद जी तो आने में असमर्थ रहे पर उन्होंने हम में से एक को अपने पास बुला कर सारा ब्योरा समझने को कहा।
मैंने अजय को भेज कर सारा हिसाब किताब समझने को कहा और खुद यहीं पुलिस बाज़ार में रुक गया। समय बीतता है रहा है पर कुछ हल निकलता दिखाई नहीं पड़ रहा।
कुछ ही मिनटों में मेरे डब्बे वाले मोबाइल फोन में अजय का फोन आया। फोन पर उसने मुझे जानकारी देते हुए बगल से जाती हुए चौंडी गली से यामाहा के पास पहुंचने को कहा।
और खुद भी गोविंद से सारी जानकारी और दुकानदार का मोबाइल नंबर वागैरह ले कर निकल पड़ा। कभी कभार आज के मॉडर्न जमाने में डब्बे वाला मोबाइल लेके चलना भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। खासतौर पर जब आप किसी अनजान शहर में हो।
हलचल और भीड़ वाली गलियों से होते हुए यामाहा के शोरूम के सामने आ खड़ा हुआ। यहाँ शिलोंग में एक्टिवा या किसी अन्य गाड़ी के मुकाबले यामाहा के वाहन की अधिक मांग है।

पुलिस बाजार में सुबह की भीड़ के बीच लेखक
किराये पर स्कूटी
कुछ देर ऐसे ही मूक बाधिर की तरह खड़ा रहा। जबतक अजय उस दूर खुली दुकान में ना दिखा जहाँ बाहर एक कतार में चार पांच गाडियां खड़ी हुई हैं।
अब कहीं जा कर भारी बैग को इतनी देर लादने के बाद कुछ आशा की किरण दिखी है। दुकान पर गोविंद ने फोन पर ही मलिक से बात कर के सारी व्यवस्था कर ली है।
बस देर है तो गाड़ी किराए पर लेने के लिए पंजीकरण की। खुद मैं आज गोविंद से नहीं मिला पर उनके यहाँ ऊंचे कद को महसूस कर पा रहा हूँ।
जिन्होंने मेरी राह आसान कर दी। दुकानदार के मुताबिक मैं पहले से ही देर से आया हूँ। सुबह आठ बजे दुकान के खुलते ही गाडियां बुकिंग के लिए निकल पड़ती हैं।
लोग एक रात पहले से ही अपनी बुकिंग करवा जाते हैं ताकि सुबह तड़के निकल सकें और रात होने से पहले अपनी मंज़िल तक पहुंच जाएं।
देर इस वजह से भी हो गई की महाशय की के पास दो गाड़ी हैं। जिनमे से एक की तो हालत खस्ता है और दूसरी गाड़ी में तेल ज़रा भी नहीं था कि पेट्रोल पंप तक भी पहुंच सके।
दुकान का ही एक लड़का गाड़ी में पेट्रोल भरवा कर कुछ ही मिनट पहले खड़ी कर गया है।
पंजीकरण के लिए आधार कार्ड जमा करना ही पड़ेगा। और जितने आदमी जाएंगे उतनो का पहचान पत्र भी लगेगा। ये भी खूब बढ़िया बात है गाड़ी की सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए।
बात आई हेलमेट की तो चमचमाता हुआ नीला हेलमेट मुझे भा गया जिसे लपक लिया। गाड़ी में पहले से ही कुछ तेल पड़ा है। ताकि गाड़ी पेट्रोल पंप तक तो पहुंच ही जाए।
जहाँ से आगे जाने के लिए पेट्रोल भरवा लिया जाएगा। दो आदमी इसलिए सिर की सुरक्षा को देखते हुए दो हेलमेट। गाड़ी में एक बैग आगे फंसाया और एक आदमी बैग लेके पीछे बैठ गया।
एलीफैंटा फाल्स के लिए सफर
दुकान वाले ने शॉर्ट रास्ते की तरफ इशारा करते हुए इस रास्ते से जाने को कहा। गाड़ी चालू की और चल पड़ा एलीफेंटा झरना देखने। गाड़ी में तेल नाममात्र का है। सड़क पर मज़े की भीड़ है।
धूप मज़े की है और भीड़ भी। भीड़ भाड़ वाली सड़क से गुजरते हुए शहर के बाहर बना पेट्रोल पंप दिखा। यहीं बेहतर रहेगा पेट्रोल भरवाना।
पेट्रोल री भरवाया ही साथ ही जब गाड़ी के टायरों में हवा भरवाई तो आंखे तब फटी की फटी रह गईं जब टायरों में हवा भरते समय गाड़ी उठ खड़ी हुई।
टायरों में हवा बिल्कुल थी ही नहीं। इस बात का आभास तो अभी हुआ। एलीफेंटा झरने अभी भी दस किमी की दूरी पर है। धूप तेज है। और यहाँ का यातायात चुस्त दुरुस्त।
भुगतान किया और हरे सिग्नल मिलते ही निकल पड़ा अपनी मंज़िल की ओर। घुमावदार और हरियाली से भरी पहाड़ियों के बीच से गुजरने में अलग ही आनंद आ रहा। है।
प्रदूषण की मात्रा भी ना के बराबर है। मौसम एक दम साफ़ और उत्तर भारत के मुकाबले जनसंख्या भी न्यूनतम स्तर पर है। दूर दराज रास्तों पर नाम मात्र के लोग दिख रहे हैं।

एलीफैंटा फाल्स को जाने वाली गली में तस्वीरें निकलवाते लेखक
घुमावदार रास्तों पर गाड़ी चलाना जितना खतरनाक है उतना मजेदार भी। कुछ ही दूर बाद समतल सीधी सड़क मिल गई जिसपर से बड़े बड़े ट्रकों का जाने का सिलसिला जारी है।
आज बारिश के तो बिल्कुल भी आसार नहीं दिख रहे हैं। खिली धूप में कुछ ही देर में स्थानीय लोगों से पूछते हुए पहुंच गया एलीफेंटा झरना।
झरने के पहले पड़ी गली में छक कर तस्वीरें निकाली। चौड़ी सड़क में सैलानियों कि गाड़ी का आना जाना बरकरार है। हरियाली और शांति से भरे इस इलाके में और रुकने का मन कर रहा है।
पर आगे भी बढ़ना है। भरपूर मात्रा में तस्वीरें खिचवा लेने के बाद गाड़ी सहित द्वारे पर आ खड़ा हुआ।
एलीफैंटा फाल्स चुस्त दुरुस्त व्यवस्था
गाड़ी से दाखिल होने वालों का अलग टिकट और पार्किंग स्थल की भी पर्ची काटी जा रही है। टिकट भी लिया और पार्किंग की पर्ची भी कटाई।
गाड़ी लेके आ गया अंदर। अंदर ना सिर्फ पार्किंग के लिए बहुत सारी जगह भी है बल्कि तरह तरह की दुकानें भी हैं। खाने से लेकर पारंपरिक वस्त्र भी।
गाड़ी तो सुरक्षित खड़ी कर दी। मगर अब समस्या आ रही है इन बड़े बड़े बैग की। ये तो कतई मुमकिन नहीं है कि इतने बड़े बैग लेके घूमने निकल जाऊं।
ना घूम पाऊंगा और बेवजह की थकान होगी सो अलग। गाड़ी पार्किंग पर लगा कर योजना बनाने लगा कि इन बैग को हेलमेट के साथ किसी एक दुकान पर रखवा दूं तो काम बन सकता है।
सामने दिख रही ढाबे जैसी दुकान के मलिक से बात की। और वो फ़ौरन ही राज़ी हो गया बैग और हेलमेट रखवाने को। गाड़ी की डिक्की में सिर्फ एक हेलमेट आ पाया है।
इसलिए दूसरा हेलमेट और बैग इन्हीं के यहाँ रखवा दे रहा हूँ। जैसा आशुतोष जी ने बताया था कि अंग्रेजों के काल में इस झरने का आकार हांथी की तरह था इसलिए इसका अंग्रेज़ी नाम एलीफेंटा रखा गया।
सन् 1897 में भूकंप के कारण वो हांथी के आकार का दिखने वाला पत्थर धराशाई हो गया जिसके कारण अब ये पहले जैसा झरना नहीं रहा।
बड़े से बोर्ड को पड़ कर आगे बढ़ने लगा।
बेमिसाल एलीफैंटा झरना
कुछ मीटर की उतार चढ़ाई के बाद आखिरकार झरने का शोर सुनाई पड़ने लगा है। दुकानों के पास तो खबर तक नहीं थी कि ऐसा कुछ भी है।
झरने के सामने बनी रेलिंग और उसके ऊपर जनता का सैलाब। जबतक मैं यहाँ पहुंचा ये सैलाब भी निकल गया पानी की तरह। रेलिंग के ऊपर झरने का फव्वारा इस कदर आ रहा है कि पूरा आवाजाही का रास्ता पानी से भीगा हुआ है।

एलीफैंटा झरना के सामने खड़े लेखक
छींटें मूह और कपड़ों पर पड़ कर उसे भिगो रहे हैं। चश्मे के आर पार भी कुछ ठीक से नहीं दिख रहा। यहाँ ज्यादा देर तक खड़े होना संभव नहीं जान पड़ रहा।
इसका असली नाम का कसेद लई पतेंग खोहशियू है जो खासी भाषा में पुकारा जाता है। जिसका अंग्रेजी में मतलब है थ्री स्टेप वाटरफॉल।
नाम के अनुरूप झरना है भी तीन भागों में। पहले भाग में दूधिया सफेदी नजर आएगी जो काफी चौंडा है और जंगली घने पेंडो से घिरा हुआ है। दूसरा भाग आम जानता कि नजर से छुपा हुआ है। और तीसरा भाग झरना एक जगह गिरकर एकत्रित हो जाता है।
कुछ एक तस्वीरें निकलवाने के बाद दूसरे छोर पर आ खड़ा हुआ। जहाँ पर इसका अंत है। पर यहाँ लोग अपनी साफ सफाई की छाप दीवारों पर छोड़ गए हैं।
झरना ज्यादा बड़ा नहीं है पर बहुत ही लुभावना है। कई पत्थरों पर पानी पड़ने से ऐसा लग रहा है कि किसी ने दूध की भरी बाल्टी उड़ेल दी हो। ऐसी सफेदी है यहाँ।
अभी तक मुख्य झरने के सामने वाला और ऊपरी हिस्से में था। अब बाकी जनता की तरह मैं भी नीचे की ओर प्रस्थान करने लगा जहाँ पानी भी थोड़ा ठहरा हुआ नजर आएगा ऐसी उम्मीद है।
लंबे पुराने इस रास्ते पर चलने लगा जिसे मानवों ने निर्मित किया है। तकरीबन आधा किमी के बाद ऊपर पहाड़ी पर दिखा एक मंदिर।
जहाँ मुश्किलात का सामना करते हुए कुछ लोग दर्शन के लिए जा रहे हैं। पर उतनी ऊपर और जटिलताओं को पार करके जाना मेरे लिए संभव नहीं होगा।
नीचे की ओर भी वही सफेदी जो ऊपर देखने को मिली। बस ऊंचाई थोड़ी और कम है। यहाँ पर बंगाली आदमी ज्यादा नजर आ रहा है।
चूंकि बंगाल और मेघालय में ज्यादा सूरज भी नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे उत्तर भारत में और राज्यों में होता है। हरियाली में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है कुदरत की तरफ से।
मानव भी थोड़ा लिहाज कर रहे हैं झरने की सुंदरता को ध्यान में रख कर शायद इसीलिए प्लास्टिक की बोतलें और पन्नी अभी तक कहीं नहीं दिखी।
सीढ़ियों पर एक गंजे भाईसाहब दिखे जो हूबहू विनोद कांबली की तरह दिखाई पड़ रहे हैं।
सूरज की किरणे भी बमुश्किल यहाँ तक पहुंच रही है। शाम होते होते तो घोर अंधेरा छा जाता होगा यहाँ। जीने से होते हुए नीचे भी आ पहुंचा।
यहाँ खड़ा लड़को का बड़ा दल पानी में जाने को लालायित है मगर वहाँ तक जाने में या तो इनके जूते भीग जाएंगे या फिर ये फिसल कर गिर सकते हैं।
पर पानी को ऊपर चल कर मैंने इसे अंजाम दिया। और बड़े ही आराम से उस पत्थर तक भी पहुंचा। ना जूते भीगे ना फिसलन। ये सब देख पास के नौजवान दंग रह गए।
इसमें दंग रहने जैसा कुछ भी नहीं है। फर्क है तो जूतों का जिसमे अच्छी ग्रिप और कपड़ा होने के कारण ऐसा हुआ। कुछ ही आगे पत्थर से ढकी एक जगह गुफा के आकर की दिख रही है।
जिसके पास तमाम लोग तस्वीरें निकलवा रहे हैं। जगह खाली होते ही आ गया मैं भी इसी गुफानुमा जगह पर। जहाँ मज़ा तो बहुत ही आ रहा है।
अभी ज्यादा भीड़ भी नहीं है इसलिए भी अच्छा लग रहा है। आधे घंटे का समय बिता कर चल पड़ा वापस। वापसी में भीड़ भी मिलने लगी है।
झरना भले ही छोटा है पर खास है। बहुत लंबा या चौंडा तो नहीं पर बहुत ही अनोखा है। जो इसे अलग बनाता है।

दुकान जहाँ रखवाया बैग
एलीफैंटा झरना टिकट दर
प्रवेश शुल्क ₹20/प्रति व्यक्ति
पार्किंग शुल्क 30/प्रति गाड़ी
कैमरा शुल्क ₹20
एलिफेंटा कैसे जाएं?
ट्रेन: शिलोंग एक पहाड़ी इलाका होने के कारण ट्रेन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। मगर फिर भी आप ट्रेन से सफर करना चाहते हैं तो सबसे नजदीकी स्टेशन असाम का गुवाहाटी जंक्शन ही पड़ेगा। स्टेशन से कुछ मीटर की दूरी पर सुमो स्टैंड है जो आपको शिलोंग तक छोड़ेगा।
गुवाहाटी से सीधी एलीफेंटा के लिए यातायात मिलना मुश्किल है। या तो किसी cab या ऑटो से ये 100 किमी का सफर तय किया जा सकता है।
इतना सफर तय करने के लिए एक दिन/रात के लिए शिलोंग में रुकना ही पड़ेगा।
सड़क मार्ग: अगर अपने मन बना लिया है खुद के वाहन से शिलोंग निकलने का तो इस 2032 किमी को चार भाग में बांट लें। और एलीफेंटा जाते जाते और भी जगहों का चुनाव कर लें घूमने का जो इस रास्ते में पड़े।
जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, असम जैसे राज्यों से होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है।
हवाई मार्ग: शिलोंग का उमरोई हवाई अड्डा पूर्वोत्तर के प्रमुख हवाई अड्डों में शुमार है। दिल्ली से सीधी हवाई यात्रा के जरिए आप तीन घंटे में शिलोंग पहुंच सकते हैं।
मेरी तरह एक रात रुक कर भी गाड़ी किराए पर ले कर जा सकते हैं। जिसका मूल्य 6००-7०० के बीच रहेगा। अन्यथा परिवार के साथ हैं तो बड़ी गाड़ियों कि भी सुविधा मुहैया होती है।
अन्यथा हवाई अड्डे से महज 40 किमी दूरी पर है एलीफेंटा फॉल्स।

एलिफेंटा फॉल्स तक के लिए तय की कुल दूरी 20किमी
Waah 👍👍